भारत में हर 100 में से एक व्यक्ति रह्युमेटोइड आर्थराइटिस (आरए) – जिसे हिंदी में गठिया कहा जाता है – से ग्रसित है। चिंता की बात है कि भारत में जागरूकता के आभाव, इस बीमारी के लाइलाज होने की भ्रान्ति और इलाज में देरी की वजह से बहुत से रोगी नवीनतम विधियों के बजाय उपचार के लिए अन्धविश्वास का सहारा लेते हैं।
इस सन्दर्भ में 2018 का नोबेल पुरुस्कार फेज डिस्प्ले नामक जैविक विधि पर हुई खोज को मिलना एक बहुत ही महत्वपूर्ण संकेत है। फेज डिस्प्ले तकनीक से बनी बायोलॉजिकल दवाएं हमारे शारीर में सुजन पैदा करने वाले रसायनों का खंडन करती हैं। एलॉपथी में सामान्यतया दवाएं रसायन से बनाई जाती है लेकिन बायोलॉजिकल दवाएं फेज डिस्प्ले तकनीक के तहत बक्टेरिओफेज नामक वायरस से एंटीबाडीज (एक प्रकार का प्रोटीन) का निर्माण कर बनाई जाती हैं।
नोबेल प्राइस समिति विज्ञान के किसी क्षेत्र में पुरुष्कार देने से पहले यह देखती है की उस खोज ने विश्व पर किस तरह से प्रभाव डाला है। फेज डिस्प्ले तकनीक की खोज दो दशक से भी पहले हुई लेकिन इस पर निरंतर काम होता रहा। अब जब यह साबित हो गया कि फेज डिस्प्ले कैंसर और गठिया जैसी ऑटो इम्यून बिमारियों के इलाज में एक क्रन्तिकारी खोज है तो नोबेल समिति ने इस साल का पुरुष्कार इस तकनीक पर हुई खोज को देने की घोषणा की।
ऑटो इम्यून बीमारयां एक ऐसी अवस्था है जिसमे हमारा इम्यून सिस्टम जो सामान्य परस्थितियो में हमें बाहरी हानिकारक बैक्टीरिया और वायरस से बचाता है बिगड़ जाता है और हमारे ही शरीर की स्वस्थ कोशिकाओं को हानि पंहुचाने लगता है। ऑटो इम्यून बीमारी में हमारा इम्यून सिस्टम एक विशेष तरह का प्रोटीन रिलीज़ करता है जो हमारे शरीर के स्वस्थ ऑर्गन्स जैसे त्वचा और जोड़ों पर हमला करता है। इसी वजह से गठिया एक ऑटो इम्यून बीमारी है।
वैक्सीन्स जैविक दवाइयों का ही एक प्रकार है लेकिन इसे एक से दूसरे व्यक्ति तक फैलने वाले बैक्टीरियल इन्फेक्शन्स और बिमारियों की रोकथाम और इलाज के लिए उपयोग किया जाता है। जबकि फेज डिस्प्ले कैंसर और गठिया जैसी ऑटो इम्यून बिमारियों के इलाज के लिए नए एंटीबाडीज बनाने की विधि है।
गठिया के मरीज समय पर गठिया रोग विशेषज्ञ तक नहीं पहुँच पाते हैं और जब तक पहुँचते हैं, यह रोग काफी गंभीर अवस्था में पहुँच चूका होता है। उस समय इसे सामान्य दवाईओं से नियंत्रित करना मुश्किल होता है। परन्तु वर्तमान समय में बायोलॉजिकल दवाईओं जैसे नवीनतम इलाज के आने से उस गंभीर अवस्था को कम और नियंत्रित किया जा सकता है। आज के समय में इन दवाइयों की सहायता से गठिया को स्टेरॉइड्स और दर्द निवारक मेडिसिन्स के बिना भी नियंत्रित किया जा सकता है, यानि इनके साइड इफेक्ट्स भी अपेक्षाकृत कम हैं।
बायोलॉजिकल मेडिसिन्स का उपयोग भारत में – जहाँ गठिया एक बहुत ही चिंताजनक रूप से व्याप्त है – काफी कम है। इसका खामियाज़ा रोगी को भुगतना पड़ता है क्योंकि रह्युमेटोइड आर्थराइटिस का अगर समय पर इलाज नहीं हो तो यह जोड़ों को ख़राब कर देती है। प्रभावित जोड़ों में अंगुलियों, अंगूठे, कलाई, पैर और टखनों के जोड़ विकृत हो जाते हैं। यदि गठिया को प्रारंभिक अवस्था में ही निदान व उपचार कर लिया जाय तो इसे सामान्य दवाईओं से नियंत्रित किया जा सकता है।
बायोलॉजिकल दवाईयां जोड़ों को लम्बे समय तक सुरक्षित रखती हैं। यह संभव है कि सभी मरीजों को बायोलॉजिकल दवाओं से लाभ ना हों लेकिन यदि यह काम करना शुरू करती हैं तो मरीज लगभग बारह सप्ताह के अंदर बेहतर महसूस करने लगता है। आमतौर पर ये दवाएं छह महीने के लिए दी जाती हैं लेकिन यह लम्बे समय तक बीमारी के सही होने तक भी दी जा सकती हैं। यह फैसला मरीज की बीमारी के लक्षणों पर निर्भर करता है।
अनुशाशन और नवीनतम इलाज पद्धतियां गठिया के इलाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। बायोलॉजिकल दवाईयों की सहायता से भविष्य में हम गठिया के मरीजों को एक बेहतर और सामान्य जिंदगी दे सकते हैं।